देहाती
कल दिखा मुझे एक देहाती शहर की भाषा उसे नहीं आती पर थे उसके मीठे बोल मन में देता मिश्री घोल छल कपट से दूर था वो दिखता ज़रा मज़बूर था वो श्याम वर्ण और दुबली काया धोती कुर्ता तन पे पाया सुनी आंखे सागर सा गहरा जीवन में जैसे दुखों का पहरा पूछ बैठा मैं तू कहा से आया क्या शहरी जीवन नहीं तुझे भाया बोल पड़ा मैं कल ही आया दो चार जोड़ कुछ पैसे लाया सोचा शहर में कुछ काम करूंगा और थोड़ा आराम करूंगा अपने भी फिर दिन फिरेगे लोग हमारी भी इज्जत करेंगे पर क्या पता था शहर नहीं है हम जैसे गांववालों की यहां प्यार नहीं है ना अपनापन सब पैसे मोल बिकते है इससे अच्छा तो गाँव है अपना क्यों पाला मैं शहर का सपना आज ही मैं वापस जाऊँगा और फिर कभी नहीं शहर आऊंगा